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जेल जर्नलिज्म - 01

मनीष दुबे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15871
आईएसबीएन :978-1-61301-676-3

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जेल जीवन पर लिखा गया रोचक उपन्यास

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अपनी बतकही.....

 

मैं या मेरी जिंदगी कोई भी समय ऐसा नहीं आया, जो मुझे लगा हो कि ये प्राईवेट है किसी से शेयर ना किया जा सकता हो। ऐसा कोई क्वालिटी टाइम जो सिर्फ मेरा हो। होता तो आसानी ही होती अपनी जिंदगी पर एक मोटी स्क्रिप्ट तैयार कर पाता। मैं जब भी बीता समय याद करता हूँ तो मेरे सामने कुछ बीते पल कौंधने लगते हैं। जिन्होंने आज मुझे इस मुकाम तक लाने में निर्णायक भूमिका निभाई।

कभी-कभी मैं अपने आप से पूछता हूँ कि वह कौन सा वक्त रहा है, जो व्यक्तिगत तौर पर मेरा रहा हो। परिवार और सामाजिक नुमाइन्दों द्वारा दिया गया समग्र और कभी ना टूटने वाला प्रभाव। इन सबको समेटने के लिये हजारों पन्ने चाहिये।

तब क्या? मैं एक ऐसी थीम हूँ जिसकी स्क्रिप्ट को किसी ने पहले से सोच कर लिख दिया है। और मुझे सिर्फ उसे फॉलो करना है। बात काफी क्लियरली दिखाई दे रही है। एक बात और वो ये कि किसी और के लिखे नाटक या जिंदगी का अभिनेता भर रहकर खुद के अहम को ठेस पहुँचाना सा लगता है।

दुःख और सुख तो एक चरणबद्ध श्रृंखला की तरह होते हैं। पर जब दुःख और समय आप को उस स्थिति में टर्न कर दे, जो कदाचित कोई अपने लिये ना ही चाहे। जो सुखद नहीं है, कहीं अधिक तकलीफदेह कहा जा सकता है। जिंदगी के बीते इन पलों को कभी भी याद करूंगा तो सिहर उठूंगा। इन बीते पलों को सोचकर ही रोगटे खड़े हो जाते हैं। एक वो स्थिति जैसी अभी है, रोंगटे खड़े करने वाली।

यह श्रृंखला दो भागों में पूरी हो रही है। जिसकी पहली किस्त आपके हाथों में है, दूसरी पर काम जारी है जल्द ही सामने होगा। किताब में कुछ ऐसा है जो आपने अब से पहले देखा पढ़ा ना हो...

बेहिसाब रोमांच और उम्दा कंटेंट गारण्टीड.......

 

मनीष दुबे
jailjournalism@gmail.com

 

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